Wednesday, November 24, 2010

एक पाती ये भी ....

 आज अंजान के जिगरे दरख़्त में कुहुक उठी और स्याही चल दी उस तरफ जहाँ केवल शायराना बयार ही उस कनक को समझ पाते हैं.

अर्ज़ है ,


दिल के दर्द को यूँ छुपा न सके
पीना था जाम  साकी
आंसुओं से गम को भुला बैठे

क्या कहे की हमसे ये हो नहीं सकता
और वो हमें अपना बना न सके

मुहब्बत में खोया होगा ग़ालिब
 तुमने बहुत कुछ
पर नाचीज़ तो अपने अश्को को
खोकर हीं डूबता है

आ जाये कोई सैलाब
ले जाये नीर की इस माला को
क्या कहू की मालिक
तेरा भरोषा भी अब और न रहा...


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